tag:blogger.com,1999:blog-29764994765869834522024-02-19T11:11:41.363-08:00Everything has a Reason!!Thoughts 💭 Unknownnoreply@blogger.comBlogger34125tag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-78983583416340711302022-12-01T06:27:00.004-08:002022-12-01T06:27:27.495-08:00वो नियत अभी मिला ही नहीं !! <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जब भी सोचा, एक एहसास सा रह जाता है !<br />
यूँ तो ज़िन्दगी चलती ही जा रही है<br />
पर कुछ वो पल जो एकेले में गुज़रते है<br />
कही चुप कुछ बाते करा करते हैं<br />
वही बातें कुछ तुम्हारी, कुछ अपनी, कुछ हमारी !!!<br />
एक तलाश जो अधूरी क्यों लगती है<br />
सबका इस जहाँ में एक आशय रहा करता है<br />
क्यों लगता है वो नियत अभी मिला ही नहीं!!!<br />
हर पहर एक कशिश रहती है!!</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">- अस्मिता सिंह </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
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Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-8116071742661270592018-12-01T18:20:00.001-08:002018-12-01T19:15:43.752-08:00Zindagi ki udhed bun<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ज़िन्दगी की उधेड़ बुन, रफ़्तार से चली जा रही ज़िन्दगी<br />
जब भी ठहर के दो पल अकेलें गुज़ारा करते हैं<br />
कुछ इस तरह रिवाइंड होती है ज़िन्दगी की टेप..<br />
पहेले पिछेले कुछ घंटो की बाते, नियम की वही ज़िन्दगी<br />
दिनचर्या ७ बजे स रात १० का.. आगे ७ दिनों की योजना<br />
जबकि यह खूब पता है किन २४ घंटो का ६० वा हिस्सा तक नहीं बदलेगा<br />
शायद यही ज़िन्दगी की उधेड़ बुन है..<br />
बचपन में एक क्लास के साल के हर महीने का हर दिन बड़ा लगता!<br />
अब साल महीने और दिन की तरह गुज़र जाते हैं पता ही नहीं चलता।<br />
सुकून से रविवार को उठकर ब्रेड पकोड़े खाना , चित्तहर का इंतज़ार और फिर रात की मूवी नाईट। .<br />
दूर दर्शन चैनल में भी इतना मनोरंजक लगता था<br />
विकल्प सिमित थे तो शायद आसानी थी<br />
अब टीवी रिमोट और फोन ने टेकओवर केर लिया।<br />
अब तो २ दिन का सप्ताहांत भी कम पड़ता है<br />
सब कुछ एक रेस सी लगती है या वह स्कूल का ब्रेक हर जो हमेशा शुरू होते ही ख़तम हो जाया करता था !!!<br />
<br />
अस्मिता सिंह<br />
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१/१२/१८ </div>
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Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-26390577916632382372017-08-05T15:48:00.005-07:002017-08-05T15:48:47.339-07:00क्या है जो नहीं है.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
क्या है जो नहीं है.....<br />
वही है जिसकी कमी है<br />
जो ठुंडते है बस वही तो नहीं है<br />
चल रहे बस रहे तो नहीं है<br />
छोड़ आये वो तो नहीं है<br />
अब रहे ना रहे<br />
फिर भी कहे न कहे<br />
सुनके सुना ना सुने<br />
क्या है जो नहीं है<br />
बस वही है जो नहीं है |<br />
- अस्मिता सिंह ८/०५/२०१७<br />
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Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-87645627177516740702016-10-06T12:21:00.000-07:002016-10-06T12:21:03.885-07:00अहित आभाव ज़िन्दगी का<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अहित आभाव ज़िन्दगी का <div>
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क्योंकर हर अहित का सामना होता है </div>
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जो सच नहीं उसका दिखावा खूब होता है !</div>
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अयोग्य का सर्वोपरि विस्तार है।</div>
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जो योग्य है , उसका हर जगह दमन है !</div>
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अहित आभाव ज़िन्दगी का </div>
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उदय तो उसका भी होता है ,जो कभी किसी का अभिप्राय न बना </div>
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अवसान एक दिन हर अवधि का निशित ही होता है.. </div>
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समय है जो आज किसी का वैरी है , कल किसी का सहचर था !</div>
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इसी तरह अयन को मन से न लगा बैठो !</div>
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जो इजाज़त लेकर कभी आया ही नहीं, वह जाने के लिए सम्मति क्यों लेगा !!</div>
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अहित आभाव ज़िन्दगी का </div>
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जिस तरह हर लहर एक दूसरे से उतनी ही जुदा है !</div>
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जितना वह एक अंबुधि का अपरित्याज्य हिस्सा है !</div>
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अक्सर जटिल चट्टानो से मिल , अस्त्तिव को बैठती है !</div>
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अहित आभाव ज़िंगदगी का</div>
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अस्मिता सिंह </div>
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१०/६/२०१६ </div>
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Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-30136884018207767052015-10-08T19:30:00.001-07:002015-10-08T19:30:29.430-07:00रिश्ता जो अनंत था, रूह से रूह का! <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एहसास उन बातों का, तुम्हे क्यों नहीं होता !<br />
शुरू जो साथ किया था सफर , दिल से दिल<br />
या कहो रिश्ता जो अनंत था, रूह से रूह का !<br />
इतनी फासला है की, कुछ भी सजग कुछ नहीं होता !<br />
कुछ ज़मीन पर बने बंधनो ने, इतना बांध लिया है ,<br />
कि अंदर की आवाज़ सुनाई हि नहीं देती क्या ?<br />
कभी ऐसा लगता है , मिलो का दूरी,<br />
सालो का फासला कुछ भी नहीं,<br />
क्योंकि दिल की आवाज़ कही तो पहुंची होगी !<br />
पर कभी सब कुछ एक मिथ की तरह धुन्ध में खो जाता है।<br />
क्या सच है , क्या सच था ?<br />
क्या कुछ नित्य प्रेम जैसा कुछ होता भी है ?<br />
एहसास तो है सत्यता का, जिसने बहाय नहीं ,<br />
कुछ अन्त निहित स्पर्श किया था !<br />
की कुछ तो है जो मिलो की दूरी , सालो का फैसला कुछ भी नहीं लगता!<br />
यकीं हैं की कहीं तो दिल की कही तक आवाज़ पहुंची तो होगी!<br />
<br />
अस्मिता १०/८/<br />
<br />
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Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-84040542420208227552014-02-17T22:19:00.001-08:002014-02-17T22:19:53.146-08:00अरसा हुआ कि खुद को जाना ही नहीं और नज़रिया बदल गया.<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अरसा हुआ.…<br />
अरसा हुआ की खुद से खुद कि बात हुए।<br />
कहीं चले जा रहे हैं बस पता का पता नहीं<br />
वक़्त का ख्याल ही नहीं , कब कल था और कब कल हो गया !<br />
रफ़्तार इस तरह की , के तूफ़ान भी अपनी रफ़्तार पलट कर देखे<br />
दिन, महीने साल, बस गुज़र रहे हैं लम्हे कि तरह!<br />
अरसा हुआ की कहीं ठहरे ही नहीं। ....<br />
सब कुछ बदल गया हो जैसे…<br />
मैं भी और मैं भी<br />
बातो बातो में बात हुए भी ज़माना गुज़र गया.....<br />
चलते चलते पता ही नहीं चला कब रफ़्तार बदल भग्न शुरू कर दिया<br />
अब भाग भाग , चलने का इहसास ही भूल गये…<br />
वही जगह यही जगह बस जरिया बदल गया।<br />
अरसा हुआ कि खुद को जाना ही नहीं और नज़रिया बदल गया.<br />
<br />
अस्मिता सिंह २/१८/२०१४<br />
<br /></div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-54110672891604041572012-08-16T20:32:00.002-07:002012-08-16T20:32:38.528-07:00सोचो तो जान के दोहरया उन भाव को जिनको कभी सोचा था दोबारा दूर से भांपे की भी नहीं!!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ज़िन्दगी जब भी इस तरह की हकीकत सामने लाती है कभी,<br />
हर तरह से मुह फेर की भी आयना दिखा ही जाती है !<br />
हर उस वजह से डर लगने लगता है,<br />
जो उस वजह को दूंढ न पाने की नाकाम कोशिश रहती है !<br />
क्या सच है क्या मिथ , क्या ठीक है और क्या गलत,<br />
पता ही नहीं किसके नज़रिए से देखे किसे!<br />
कभी उन किसी से कोई वास्ता भी नहीं रहा होगा,<br />
फिर भी उन किसी की वजह ढूंडने में इतना वक़्त लगा दिया !<br />
शायद जब सवालो के जवाब नहीं मिलते तो ,<br />
तो इतनी अनजानी से घुटन होने लगाती है !<br />
क्या सच है क्या मिथ , कौन सही है कौन गलत<br />
पता ही नहीं किसके नज़रिए से देखे किसे!
<br />
किस वजह से ये अविदित सी तलाश है,<br />
जो पूरी होकर भी पूरी ना हो सकी !<br />
फिर वही मज़ाक ज़िन्दगी ने किया , या आप वोह रास्ता ढूंढा<br />
जिसपर आप फिर वही फैसला लिया,<br />
कैसे कह दे इतिहास न दोहराया किसी ने<br />
की हर जगह वही किस्से नज़र आना इतेफाक तो नहीं,<br />
फिर भी किस्मत को फिर से ठुकराया किसी ने<br />
जाने कब रुके ये किस्सा कहीं पर?<br />
सोचो तो जान के दोहरया उन भाव को जिनको कभी सोचा था दोबारा दूर से भांपे की भी नहीं!!<br />
<br />
- अस्मिता सिंह 08.16.2012</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-41959688088338811912012-03-23T20:18:00.001-07:002012-03-23T20:19:31.408-07:00ये अनजान खवाहिशे , यह अनकही उमींदे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">ये अनजान खवाहिशे , यह अनकही उमींदे <br />
एक गहेरे पानी में बनी उस चाँद की परछाई की तरह नज़र आती हैं ,<br />
जो एक छोटे से पत्ते के छूने से , पानी में लहरों के साथ खो जाती हैं ..<br />
इनका अस्तित्व बस कुछ एक पल का छोटा सा होता है .<br />
पर सोचो तो कुछ तो मिला होगा...<br />
शायद पल भर की ज़िन्दगी और एक पल की पहचान!!<br />
और फिर सबसे परे हो सबसे अनजान , कोने में छुप जाती हैं,<br />
या कभी इतनी घबराई की दुनिया के सामने ही न आती है .. <br />
ये अनजान खवाहिशे, यह अनकही उमींदे !!<br />
कभी इनको , कोने से जगाया होता ...<br />
या ऊपर चार दीवारों में बंद कर एक बड़ा सा ताला लगाया होता ..<br />
न कोई एहसास रहता नो कोई आवाज़ आती ...<br />
और चुप चाप अनजान, उनकाही अपने आप में समां जाती<br />
ये महत्वहीन ,छोटी मोटी खवाहिशे , यह छोटी मोटी उमींदे ....<br />
<br />
अस्मिता सिंह ०३.२६.२०१२</div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-4222281118736226582011-09-30T20:29:00.000-07:002011-09-30T20:29:42.376-07:00कभी इस तरह से कभी किसी तरह से ,<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: left;">कभी इस तरह से कभी किसी तरह से ,</div><div style="text-align: left;">यहीं सब जो तुमसे जुदा है , हर जगह हर तरह से</div><div style="text-align: left;">हर तरह से बस और सिर्फ तुमसे जुडा है...</div><div style="text-align: left;">बातो में जो पिछले दिनों की परछाई है , हर वो धुंधला सा एहसास है</div><div style="text-align: left;">कभी किसी तरह, कभी इसी तरह से , बस और सिर्फ तुमसे जुडा है..</div><div style="text-align: left;">दिन शुरू से हर पहर के अंत तक , जो रेखाओं से जुदा है </div><div style="text-align: left;">कभी अलक्ष्य है, कभी प्रत्यक्ष अति स्पष्ट है </div><div style="text-align: left;">इसी तरह बस इसी तरह से , सिर्फ और सिर्फ तुमसे जुडा है...</div><div style="text-align: left;">ये तुम जानते हो, ये तुम्हे एहसास भी है... ये तुमसे न कभी जुदा था, </div><div style="text-align: left;">न कभी अप्रत्यक्ष था , कही अनंत की तलाश में बस अलग अलग सा,</div><div style="text-align: left;">जुदा जुदा सा रहा हो .. फिर भी सिर्फ तुमसे , हर तरह से सिर्फ तुमसे जुडा है ... </div><div style="text-align: left;">-- अस्मिता सिंह</div></div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-28575415861080545182011-08-19T21:55:00.000-07:002011-10-28T12:20:11.774-07:00हम छुपाते है तो सब हालlत चहरे से बयाँ हो जाते हैं...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: left;"> हम छुपाते है तो सब हालlत चहरे से बयाँ हो जाते हैं...</div><div style="text-align: left;">वो सब बात बता कर भी हर बात छुपा जाते हैं</div><div style="text-align: left;">कुछ हालत ऐसे की बातो में बयां नहीं होते</div><div style="text-align: left;">भाव छुपान की हर कोशिश नाकाम नज़र आती है</div><div style="text-align: left;">शब्दकोष में कुछ कमी सी महसूस होती ही क्या है...</div><div style="text-align: left;">हर अभिव्यक्क्ति अपना रास्ता निज ही ढूंढ लेती है...</div><div style="text-align: left;">और जो हालात संभ्रम में छुपाने की कोशिश की थी </div><div style="text-align: left;"> वोह अधूरी कोशिश बनकर रह जाती है</div><div style="text-align: left;"><div style="text-align: left;">चहरा जो हालात बयाँ करता था.. उसपर यह नाकाम कोशिश एक और भाव लगा देती है</div></div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">- अस्मिता सिंह</div></div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-6936840551914046332011-03-03T19:21:00.000-08:002011-03-03T19:21:39.721-08:00की किस तरह हवा के साथ बहते तिनके को कोई तो ठहराव मिले<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: left;">की किस तरह हवा के साथ बहते तिनके को कोई तो ठहराव मिले...</div><div style="text-align: left;">इतनी दूर निकल आये की याद नहीं सफ़र शुरू कहाँ से किया था</div><div style="text-align: left;">की किस तरह पानी में मिलती जा रही तरंग को को उसका अपना एक बहाव मिले...</div><div style="text-align: left;">देखा तो अपने ही पल चिन्ह पहचाने में नहीं आये </div><div style="text-align: left;">किसी के रास्तो पर गुमसुम से चले जा रहे थे ...</div><div style="text-align: left;">की आज पीछे नज़र घुमाई है और किस तरह आप में धूमिल होते अहसास को कोई पहचाना सा भाव मिले..</div><div style="text-align: left;">अजीब अवलंबित सफ़र में भागते हमसफ़र की तरह एक लम्बा सफ़र तय तो केर लिया है ...</div><div style="text-align: left;">की उसे भी आज रुक कर एक नयी हवा का हल्का सा अनुभाव मिले..</div><div style="text-align: left;">की किस तरह हवा के साथ बहते तिनके को कोई तो ठहराव मिले...</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">-अस्मिता सिंह</div><div style="text-align: left;">०३.०३.२०११ </div></div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-75569453658115481202010-06-18T19:34:00.000-07:002010-06-18T20:18:47.448-07:00अरसे बाद जब कलम उठाई तोअरसे बाद जब कलम उठाई तो लगा की शायद<br />
शब्दों से रिश्ता टूट गया था और वोह हमे पहचाने गी की नहीं ...<br />
पर कुछ रिश्ते शायद इस जनम के होते ही नहीं हैं<br />
वोह तो कहीं से बस बने बनाये आते हैं...<br />
इधर उधर हर जगह बिखरे शब्दों ने हम पहचाना भी और फिर से अपना बना लिया..<br />
कुछ देर खामोश खड़े रहकर सोचा तो होगा इस इंसानी मनोभाव के बारे में ... <br />
पर यकीन मानो कुछ ही देर में उन्होंने हमे फिर से अपना लिया ...<br />
फिर जुड़ गए सिलिसले ऐसे ... हमें अपनी सूनी राहो का हम सफ़र मिल गया हो जैसे ...<br />
कितना अजीब सा नियम है प्रकृति का.. इंसान रिश्ते बनाने के लिये सिर्फ इंसानो को ढूंढता है...<br />
अगर गौर से देखे तो रिश्ता सिर्फ एहसास से बनते है... <br />
और रिश्ता ऐसे हो तो बात ही क्या है...<br />
आज बड़ा अकेलापन सा लग रहा था , एक घबराहट सी थी.. आस पास सन्नाटा सा था...<br />
और फिर याद आया अपना रिश्ता इन शब्दों से और सब वैसे का वैसे ही लगने लगा जैसे अरसा पहले था...Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-62661010076430226632009-11-23T20:31:00.000-08:002009-11-23T20:31:07.788-08:00तुमसे रिश्तातुमसे मेरा रिश्ता कुछ इस तराह का हे,<br />
जो तुम्हारे साथ होने पर ,मुझे मेरा एहसास कराता हे ..,<br />
इसलिए क्योंकि तुम्हारे साथ से मुझे मेरी पअह्चान मिलती है<br />
हर उस लम्हे में वो पल छिपे होते हे ,<br />
कुछ सीप में छिपे मोती की तरह<br />
जो ऊपर से एक संतुलित सा मायिक परिवेश नज़र आता हे<br />
पर अंदर जहाँ हर खवाइश हर सपने पुरे होते नज़र आते हे..<br />
मानो धरती के उस किनारे पहुच गए हो जहाँ <br />
आसमान और धरती के बीच सिर्फ एक धुंदली रेखा रह गयी हो <br />
तुमसे मेरा रिश्ता कुछ इस तराह का हे ,<br />
जो तुम्हारे साथ होने पर ,मुझे मेरा एहसास कराता हे ...Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-61670713887041207672008-04-01T07:48:00.000-07:002008-04-01T09:23:26.296-07:00अपनी दुनिया में दास्तान गम है,,,अनपी दुनिया में दास्तान गम है॥<br />किस्मत से लड़कर कुछ नही मिला ....<br />किस्मत से बड़कर कुछ नही मिला...<br /><span class="">मिल जाता है हर मोड़ पर गम का टुकडा....</span><br /><span class="">कम नही होता कागज़ में लिपटा हुआ गम का वो टुकडा ...</span><br /><span class="">कम नही होता हवा के साथ चलता गम का वो टुकडा...</span><br /><span class="">कम नही होता हर पल प्रत्बिम्ब सा साथ चलता गम का वो टुकडा....</span><br /><span class="">सोचा था गम की कोई ज़िंदगी होगी... जिया है तो साथ भी छोडेगा .....</span><br /><span class="">पर अब तो लगता है अंत तक साथ रहेगा ज़िंदगी से जुडा</span><br /><span class="">हर पल साथ चलता गम का वो टुकडा......</span><br /><span class=""></span><br /><span class="">अस्मिता सिंह</span><br /><span class=""></span><br /><span class=""></span><br /><span class=""></span>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-35056778947862212462008-03-11T06:55:00.000-07:002008-03-11T07:19:03.310-07:00कुछ तो कहना है तुमको जो चुप रहकर भी कह देते हो...कुछ तो कहना है तुमको जो चुप रहकर भी कह देतो हो....<br />हम समझते है इस तरह से की तुम्हारी हर खामोशी की एक अलग आवाज़ होती है....<br />और हर आवाज़ का एक अलग आभास होता है....<br />आज से कल का सफर , उस साथ पर निर्भर तो नही<br />फ़िर हर मोड़ पर यह तलाश सी क्यों रहती है .....<br />जब खामोश राहें है और खामोश तुम भी हो.....<br />फिर यह हर पल खामोशी की यह अलग आवाज़ सी क्यों रहती है....<br />कहीं राहों में पड़े सूखे पत्ते हवा के साथ मिलकर कुछ कह जाते हैं<br />और कभी... बारिश की बूंदों से भीगकर यह भी चुप चाप वहीं खमोश हो जाते हैं.....<br />ठीक उसी तरह ज़िंदगी कभी हवा के साथ सर सराहत की आवाज़ करती है .....<br />और कभी गीले खामोश पत्तो की तरह निशब्द हो जाती है.....<br />कुछ कहना है तुमको जो चुप रहकर भी कह देते हो.......<br /><br />अस्मिता सिंहUnknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-45298274862447646512008-03-06T08:48:00.000-08:002008-03-06T08:54:46.806-08:00तुम हेर बार युहीँ चले जाते हो....तुम हर बार यूहीं चले जाते हो....<br />हर इल्जाम हमारे सर छोड़ के...<br />इल्जाम उन बातो का जो हमने की...<br />और इल्जाम उन बातो का जो तुमने की....<br />और हम यूहीं चुप चाप सुन कर रहे जाते<br /><span class="">हर </span>उन बातो को....<br />तुम हर बार यूहीं चले जाते हो.....<br /><br />अस्मिता सिंहUnknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-91226714660060104632008-02-26T07:50:00.000-08:002008-02-26T08:01:00.393-08:00क्या ज़िंदगी है एक द्वीप की.....पानी से घिरा हुआ... चुप चाप खड़ा रहता हू...<br />मैं द्वीप हू और मेरा घर पानी के बीच में है...<br />लहेरो से दिन रात बातें करता हू॥<br />कभी यह गुस्से में मुझे <span class="">थपेडे </span><br />मार जाती है...<br />और कभी दिन रात प्यार से मुझे अपने<br />aanchal tale lori sunati है....<br /><span class=""></span>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-54909660209026650332007-12-18T08:51:00.000-08:002007-12-18T08:59:29.742-08:00मेरी दो ज़िंदगी हैं....मेरी दो ज़िंदगी हैं.... एक मेरी और एक तुम्हारी...<br />मेरी अपनी ज़िंदगी अपनी नही हैं...<br />और मेरी तुम्हारी ज़िंदगी तुम्हारी नही है...<br />कुछ कहकर क्या करना है... पर लगता है चुप रहकर भी क्या करना है...<br />मेरी दो ज़िंदगी हैं.... एक मेरी और एक तुम्हारी...<br />मेरी तुम्हारी ज़िंदगी का तुम कुछ नही कर सकते...<br />मेरी अपनी ज़िंदगी का मैं कुछ नही कर सकती....<br />फिर यह कैसी ज़िंदगी है..<br />जो न मेरी है न तुम्हारी है....<br /><br />अस्मिता सिंहUnknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-4946164378306973132007-12-06T08:30:00.000-08:002007-12-06T08:41:00.854-08:00बस एक फैसले का फासला है.....बस एक फैसले का फासला है....<br />जो हर तरह से जंजीरो में बांध कर रखा है...<br />क्या ख्वाहशे हैं क्या सपने है.....<br />कि हर सपने को बस ख्वाबो में पूरा होते देखतें हैं.....<br />वक़्त से लड़कर भी<br />तो देख सकते थे पर तब वही रिश्तो ने बाँधा था<br />जो आज रोक कर रखें हैं.....<br />बस एक फैसले का फासला है....<br />कि वक़्त के साथ चलने कि कोशिश हर नाकाम हुई है...<br /><br /><br />अस्मिता सिंह ०६ दिसम्बर २००७Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-46367029845674660662007-11-20T06:32:00.000-08:002007-12-06T08:42:28.512-08:00इतनी तनहा है ज़िंदगी कि ...इतनी तनहा है ज़िंदगी कि ...<br />हर आहट कि एक अलग सी आवाज़ सुनाई देती है.....<br />कुछ इस तरह वक़्त गुज़रता है कि<br />हर आवाज़ से एक रिशता बन गया है.....<br />हवा कि आवाज़, पानी कि आवाज़, खिड़की कि आवाज़, दीवारों कि आवाज़....<br />हर उस चीज़ कि आवाज़ जो आस पास रहती है....<br />क्योंकी वक़्त तो इन्ही के साथ गुजरता है ...<br />यह हमसे बात करते हैं... और हम इनसे.....<br />कभी हम इन्हें अपनी दास्ताँ सुनाते है... और कभी यह हमहे अपनी कहानी बताते है.....<br /><br />अस्मिता सिंह<br />०४ दिसम्बर २००७Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-22547805434894075352007-11-14T13:26:00.000-08:002007-11-14T14:03:06.948-08:00कुछ मुलाकात अधूरी सी क्यों लगती हैं,,,,,कुछ मुलाकात अधूरी सी क्यों लगती हैं....<br />इस तरफ से उस तरफ का सफर... वक़्त के साथ ठहरता हुआ लम्हा<br />यह अनकहीं सी वह बात पूरी सी क्यों लगती है..<br />क्या यही ज़िंदगी के हर मोड़ पर होता है....<br />वक़्त कहीं है पर लम्हा वहाँ नही होता है ...<br />जब वक़्त था तो लम्हों को संभाला अब हर<br />पल उन लम्हों की तलाश है....<br />जीते है कि जीना है इसलिए पर ज़िंदगी तो ज़िंदगी नही....<br />उन लम्हों पर पड़े कुछ सूखे पत्तो कि तरह एक खोया हुआ सा आभास है....<br /><br />अस्मिता सिंह १४ नवम्बर २००७Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-67530773273408453582007-09-26T07:52:00.000-07:002007-09-26T07:58:07.101-07:00कल्पनाओ की तस्वीरनव कल्पना की धूमिल सी तस्वीर देखी है....<br />कभी ख्वाब में तो कभी हक़ीकत में.....<br />अपनी ही ख्वाबों कि तकदीर देखी है.....<br />क्षिति के पास तो<br />आसमान भी झुक जाता है.....<br />स्पष्टता कि रह में<br />धुंध कहीं पीछे रूक जाता है....<br />धरती के किनारे.... आसमान के सहारे॥<br />जो मिल जाता है...<br />उसकी अनजानी सी तस्वीर देखी है॥<br /><br />नव कल्पना की धूमिल सी तस्वीर देखी है....<br />कभी ख्वाब में तो कभी हक़ीकत में.....<br />अपनी ही ख्वाबों कि तकदीर देखी है.....<br /><br />अस्मिता सिंहUnknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-34539527683759176572007-09-26T07:21:00.000-07:002007-09-26T07:50:03.506-07:00व्यर्थता एवम सार्थकताकभी जीवन की व्यर्थता को सार्थक<br />बनाने की कोशिश तो करो<br />ज़मीन से ऊपर उठकर<br />चांद पर जाने की कोशिश तो करो...<br />क्या हस्ती है हवाओं कि अगर इरादे बुलंद हो<br />हवाओं का रुख मोड़ने की कोशिश तो करो...<br />ज़मीन पर चल सकते हो तो क्यों नही मानते<br />आसमान पर भी घर बनओगे<br />झुक जाएगा आसमान भी ......<br />कभी सर ऊपर उठाने कि कोशिश तो करो......<br /><br />अस्मिता सिंह .....<br />१५/०३/२००२ (भूली बिसरी यादें)Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-41899578617333632202007-09-24T12:57:00.000-07:002007-09-24T13:11:24.145-07:00क्लिष्ट जीवनक्लिष्ट जीवन कि क्या दास्ताँ होगी ..<br />कहीं छाव हैं तो कहीं गहरा पानी है...<br />शायद एक मज़बूरी है और यही अन कहीं सी कहानी है॥<br /><br />सच है कि सच को छुपाना कितना कठिन है...<br />और सच है कि सच को अपनाना कितना कठिन है...<br /><br />जिन्दगी अक्सर दो रहो पर लाकर छोड़ देती है...<br />एक जमीर कि आवाज़ और एक ज़िमेदारियों कि आवाज़...<br />अपने ज़मीर का गला घोट कर अगर ज़िमेदारी उठाओ॥<br />तो वोह महज एक बोझ बनकर रह जाती है....<br /><br /> अस्मिता सिंह २५ सितंबर २००७Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2976499476586983452.post-81889961795231742102007-09-12T11:40:00.000-07:002007-09-12T12:02:29.589-07:00यह ठहरा हुआ ज़रा रुका हुआ सा लम्हा....<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhD6Bm1DcgKpxObTIOLMomenvv6TZw2NNnKknpFVaXurAtR2qxPk9BfCMfS3hiLRXvvNSzdVfFAQxQ0iFoqBO6niiv4dNxFj3xENibkA7K1Jin8hqHJauFqxLsltPkBngralXCGZeQQj7k/s1600-h/100_2639.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5109392715922658418" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhD6Bm1DcgKpxObTIOLMomenvv6TZw2NNnKknpFVaXurAtR2qxPk9BfCMfS3hiLRXvvNSzdVfFAQxQ0iFoqBO6niiv4dNxFj3xENibkA7K1Jin8hqHJauFqxLsltPkBngralXCGZeQQj7k/s320/100_2639.JPG" border="0" /></a><br /><div>तुम नही हो साथ तो यह लम्हा चल सा नही रहा है....</div><br /><div>रूक गया है वही आगे चल सा नही रहा है...</div><br /><div>वोह ख़ुशी कहॉ <span class="">खोजे,</span> जो सिर्फ और सिर्फ उन लम्हों के साथ क़ैद हो गई है...</div><br /><div>तुम नही साथ तो वोह ख़ुशी ठहर सी गयी है ...</div><br /><div>खामोश हो गयी है कहीं कुछ बोल सी नही रही है...</div><br /><div>यूं तो हसते थे तो सालो लंबी खामोशी टूट जाती थे...</div><br /><div>तुम नही साथ तो वोह हंसी चुप सी हो गयी है...</div><br /><div>खूद एक लंबी लकीर सी बन गयी है... </div><br /><div>उन रेखाओं में कैसे खोजे उस हंसी को....</div><div> </div><div>अस्मिता सिंह </div><div>Sept १३ </div><br /><div></div>Unknownnoreply@blogger.com